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  समर कैम्प -क्यों और कैसे ? अपने देश में जमीन से जुड़े अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जिसे बाहर किसी दर्शनीय स्थल आदि जगहों पर घूमने का मौका मिलता हो ऐसा देखने को बहुत कम मिलता है | बच्चे ग्रीष्मावकाश में कहीं नाते रिश्तेदारी में घूमने जाते हैं या अपने-अपने घरों में समय बिता रहे होते हैं | यानी सभी बच्चे अपने-अपने ढंग से समय ब्यातित कर रहे होते हैं | ऐसे में बच्चे कुछ समय अर्थपूर्ण ढंग से अपना समय अपने शिक्षकों/परिचितों/दोस्तों के साथ बिता पायें | सहज वातावरण में आनन्द ले पायें  | इस दौरान कुछ नया सीख पायें |  इन सब विचारों के साथ  पांच से सात दिनों तक समर कैम्प के आयोजन की बात सोच सकते हैं | ऐसे में यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि बच्चों को सीखने के लिए किस तरह के मौके दिए जाएँ ? सीखने की ऐसी प्रक्रियाओं की चयन करना जिसमें कि कई सीखने के प्रतिफलों को भी सीखने में मदद करती हो जैसे कि अपनी बात अपने तरीके से रखना और दूसरों की बातों को ध्यान से सुनना | अपने अनुभव संसार और कल्पना संसार को बेझिझक सहज ढंग से अभिव्यक्त करना | रोल प्ले व चित्रों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना | अपनी कल्पना के आधार
  लालू और पीलू एक मुर्गी थी | मुर्गी के दो चूज़े थे | एक का नाम लालू था | दूसरे का नाम पीलू था | लालू लाल चीजें खाता था | पीलू पीली चीजें खाता था | एक दिन लालू ने एक पौधे पर कुछ   लाल - लाल देखा | लालू ने उसे खा लिया | अरे , यह तो लाल मिर्च थी ! लालू की जीभ जलने लगी | वह रोने लगा | मुर्गी दौड़ी हुई आई | पीलू भी भागा | वह पीले गुड़ का टुकड़ा लेकर आया | लालू ने झट गुड़ खाया | उसके मुँह की जलन ठीक हो गई | मुर्गी ने लालू और पीलू को लिपटा लिया |                                                                  मनोरमा ज़फा ·          कहानी को पहली – दूसरी कक्षा के बच्चों के साथ इस्तेमाल करें | ·          कहानी को बोर्ड / चार्ट पर लिखकर कक्षा में लगा दें | इससे जुड़ा कोई चित्र बना दें तो और अच्छा रहेगा | ·          कहानी बच्चों को पढ़कर सुना दें | ·          कहानी के शब्दों पर उँगली रखते हुए बच्चों से पढ़वाएं | ·          बच्चों से कुछ शब्द पूछें / शब्दों की पहचान करवाएं | ·          कहानी पर बच्चों से बात करें | उसके लिए निम्न प्रश्न हो सकते हैं – मुर्गी के कित
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सीखने-सिखाने की एक सहज एवं प्रभावी तरीका

  बाल शोध -सीखने-सिखाने का एक सजह प्रक्रिया सीखने-सिखाने के अपने-अपने तरीके हैं | अपने-अपने अंदाज हैं | और इस अकादमिक क्षेत्र में सीखने-सिखाने से सम्बंधित बहुतेरे नाम हैं | जैसे बाल केन्द्रित शिक्षण, आनंददायी शिक्षा, प्रोजेक्ट विधि, रचनात्मक शिक्षण विधा, खोजबीन विधि [ Discovery learning of method] इत्यादि | सभी विधियों और विधाओं की अपनी-अपनी खूबियाँ हैं | खूबसूरती है | हलांकि इसकी व्याख्या भी जमीनी स्तर पर अलग-अलग देखने व सुनने को मिलता है | फिरहाल यहाँ इन शब्दों की व्याख्यात्मक विश्लेषण करना नहीं है | जरुरत यह है कि दबाव रहित हो कर हर एक बच्चा सीखने में शामिल [Involve] हो | कुछ नया सीखे | सीखने के उपरांत और सीखने के दौरान भी आनंद का अनुभव कर पाए | सीखे हुए पर पुनर्विचार करने के मौके मिले | अपेक्षित कौशलों के विकास के मौके मिले | कुछ करने का ,किये हुए को लिखने का और आत्मविश्वास हाशिल करने का अवसर मिल पाए | हमारे पाठ्यपुस्तक के शुरुआत में ‘बड़ों से दो बातें’ और आमुख के अंतर्गत पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में फेरबदल की मांग करता है | आइये इसके कुछ अंश पर यहाँ गौर करें ... पा

पुस्तक समीक्षा -सब मजेदारी है ! कथा नीलगढ़

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    पुस्तक समीक्षा सब मजेदारी है ! कथा नीलगढ़ इस पुस्तक को पढ़ते हुए महसूस किया कि विचार और व्यवहार से व्यक्ति के दिल में जगह बनता है | बस;थोड़ा थम के देखो , थोड़ा रम के देखो | इस जहां में खुबसूरत सी भी जगह है, वहाँ भी ज़रा ठहर के देखो | लोगों से बोलिए | बतियाए | उनके भी सुख दुःख में शामिल   होइए | फिर देखिए इन्सान होने के मायने और परिभाषाओं को ढूंढने की जरुरत कम पड़ेगी | आपका व्यक्तित्व और व्यवहार हीं इन्सान होने के मायने और परिभाषाए गढ़ने लगती है | इस किताब को पढ़ते हुए महानगर के हाईवे से लेकर नीलगढ़ के घने जंगलों के आदिवासी इलाकों के कच्चे रास्तों के बीच से जोड़ता हुआ सफ़र तय किया | और नीलगढ़ के घने जंगलों के बीच ठहरा | जो अब कहीं कहीं पक्के रास्ते में बदल गया है | यह रास्ता केवल ईंट -पत्थर से बना रास्ता भर नहीं है यह रास्ता इंसानी सफ़र का भी रास्ता है | एक परंपरा में रहते हुए दूसरी परंपरा और संस्कृति में जीते हुए एक नयी राह की झलक है | इस राह में अशिक्षा , अन्याय और सरकारी योजनाओं की जिल्लत झेलने के साथ-साथ जीवन को देखने ,जीने का सहज ढंग भी शामिल है |       हर एक इन्सान से गहरा और आत्मी
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आजमाता रहा जोर इन पत्थरों  से , न पत्थर पिघला न मैं | जिंदगी की भोर ख़त्म होने वाली है न ओ हमें समझें न हम उसे समझे पर मजे की बात तो ये है कि हम दोनों समझ की बात हीं करते रहे | आजमाता रहा जोर इन पत्थरों  से , न पत्थर पिघला न मैं | चल रहा था इन पैरों से पर पैरों के बारे में कभी सोचा नहीं कि जाना कहाँ है इन पैरों से बस चलता रहा ,चलता रहा कभी अविराम तो कभी विराम देता रहा इन पैरों को जब थक जाता था जब पक जाता था आजमाता रहा जोर इन पत्थरों  से , न पत्थर पिघला न मैं |
                 चरवाह                                           चरवाह ,जिंदगी की दिखाव से बेपरवाह  पगडन्डियों के रास्ते चल रहा है | मन में गुनगुनाता है, जिंदगी की धुन पर मन में रहती है चिंता , और रहता है संकोच | कोई सुन ना ले, मेरे दुखों का धुन मेरे सुखों का सूखापन, इस सुनसान इलाके में | पर वृक्षों की झुरमुटों ने हवाओं की फिदाओं ने निर्मल भावनाओं ने सुनती है चरवाह की धुन | शुरू होती है जिंदगी की अगली धुन जो जिंदगी की गन्दगी को धो कर, अहम के वहम को छोड़ कर जिंदगी को जिंदगी बनाती है , और चरवाह को बेपरवाह | चरवाह जिंदगी की दिखाव से बेपरवाह , पगडंडियों के रास्ते चल रहा है |   जय शंकर चौबे